कुछ बाते तब तक समझ में नहीं आती
जब तक खुद पर ना गुजरे
में वो क्यों बनूँ जो तुम्हे चाहिये
तुम्हे वो कबूल क्यों नहीं जो में हूँ
कुछ करना हो तो, भीड़ से हटके चलिए
भीड़ सहास तो देती है, मगर पहचान छीन लेती है
थोड़ा सा रफू करके देखिये ना
फिर से नई सी लगेगी, ज़िन्दगी ही तो है
बहुत अंदर तक जला देती है वो शिकायते
जो बया नहीं होती
अच्छी किताबे और अच्छे लोग
तुरंत समझ में नहीं आते
उन्हें पढ़ा जाता है
एक सपने से टूटकर, चकना-चूर हो जाने के बाद
दूसरा सपना देखने के हौंसले, का नाम ज़िन्दगी है
तकलीफ खुद की कम हो गयी
जब अपनो से उम्मीद कम हो गयी
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