बेस्ट ग़ज़ल कलेक्शन डॉ.राहत इन्दोरी

बेस्ट ग़ज़ल कलेक्शन डॉ राहत इन्दोरी👇👇



बुलाती है मगर जाने का नईं :-डॉ राहत इन्दोरी

बुलाती है मगर जाने का नईं 
ये दुनिया है इधर जाने का नईं,

मेरे बेटे किसी से इश्क़ कर
मगर हद से गुजर जाने का नईं,

सितारें नोच कर ले जाऊँगा
में खाली हाथ घर जाने का  नईं,

वबा फैली हुई है हर तरफ
अभी माहौल मर जाने का नईं,

                    वो गर्दन नापता है नाप ले
                   मगर जालिम से डर जाने का नईं,




किसे के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है:-डॉ राहत इन्दोरी

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अगर खिलाफ है होने दो जान थोड़ी है,
ये सब धुँआ है कोई आसमान थोड़ी है,

लगे की आग तो आएंगे घर कई जद्मे में,
यहाँ सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है,

हमारे मुह से जो निकले वही सदाकत है,
हमरे मुह में तुम्ही जबान थोड़ी है,

मै जानता हूँ कि दुश्मन भी कम नहीं है,
लेकिन हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है,

आज शिहिदे मसनद है कल नहीं होंगे,
किरायेदार है जाती मकान थोड़ी है,

सभी का खून सामिल इस मिट्टी में,
किसे के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है!!








अब कहा ढूढने जावोगे हमारे कातिल:-डॉ राहत इन्दोरी

मेरे हुजरे में नहीं और कही पर रख दो,
आसमा लाये हो ले आओ जमी पर रख दो,


अब कहा ढूढने जावोगे हमारे कातिल,
आप तो क़त्ल का इल्जाम हमी पर रख दो,


उसने जिस ताख पर कुछ टूटे दिए रखे है,
चाँद तारो को भी ले जाके वही रख दो










 सारी बस्ती क़दमों में है, ये भी इक फ़नकारी है

वरना बदन को छोड़ के अपना जो कुछ है सरकारी है,

कालेज के सब लड़के चुप हैं काग़ज़ की इक नाव लिये
चारों तरफ़ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है,

फूलों की ख़ुश्बू लूटी है, तितली के पर नोचे हैं
ये रहजन का काम नहीं है, रहबर की मक़्क़ारीहै,

हमने दो सौ साल से घर में तोते पाल के रखे हैं
मीर तक़ी के शेर सुनाना कौन बड़ी फ़नकारी है,

 


अब फिरते हैं हम रिश्तों के रंग-बिरंगे ज़ख्म लिये
सबसे हँस कर मिलना-जुलना बहुत बड़ी बीमारी है,

दौलत बाज़ू हिकमत गेसू शोहरत माथा गीबत होंठ
इस औरत से बच कर रहना, ये औरत बाज़ारी है,

कश्ती पर आँच आ जाये तो हाथ कलम करवा देना
लाओ मुझे पतवारें दे दो, मेरी ज़िम्मेदारी है…!!




आशिकी इज्जत बिगाड़ देती है:-डॉ राहत इन्दोरी

सुबह की नई हवाओं कि सोभत बिगाड़ देती है,
कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है,

जो जुर्म करते है वह इतने बुरे नहीं होते,
सजा न देके अदालत बिगाड़ देती है,

मिलना चाहा है इंसा को जब भी इंसा से,
तो सारे काम सियासत बिगाड़ देती है,

हमारे पीर तकीमीर ने कहा था कभी,
मिया ये आशिकी इज्जत बिगाड़ देती है!!







रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता हैं
चाँद पागल हैं अंधेरे में निकल पड़ता हैं,

मैं समंदर हूँ कुल्हाड़ी से नहीं कट सकता
कोई फव्वारा नही हूँ जो उबल पड़ता हैं,

कल वहाँ चाँद उगा करते थे हर आहट पर
अपने रास्ते में जो वीरान महल पड़ता हैं,

ना त-आरूफ़ ना त-अल्लुक हैं  मगर दिल अक्सर
नाम सुनता हैं  तुम्हारा तो उछल पड़ता हैं,

उसकी याद आई है  साँसों ज़रा धीरे चलो
धड़कनो से भी इबादत में खलल पड़ता हैं…!!



इन्तेज़ामात  नए सिरे से संभाले जाएँ
जितने कमजर्फ हैं महफ़िल से निकाले जाएँ,

मेरा घर आग की लपटों में छुपा हैं लेकिन
जब मज़ा हैं तेरे आँगन में उजाला जाएँ,

गम सलामत हैं तो पीते ही रहेंगे लेकिन
पहले मयखाने की हालात तो संभाली जाए,

खाली वक्तों में कहीं बैठ के रोलें यारों
फुरसतें हैं तो समंदर ही खंगाले जाए,

खाक में यु ना मिला ज़ब्त की तौहीन ना कर
ये वो आसूं हैं जो दुनिया को बहा ले जाएँ,

हम भी प्यासे हैं ये अहसास तो हो साकी को
खाली शीशे ही हवाओं में उछाले जाए,

आओ शहर में नए दोस्त बनाएं “राहत”
आस्तीनों में चलो साँप ही पाले जाए..!!






समन्दरों में मुआफिक हवा चलाता है
जहाज़ खुद नहीं चलते खुदा चलाता है,

ये जा के मील के पत्थर पे कोई लिख आये
वो हम नहीं हैं, जिन्हें रास्ता चलाता है,

वो पाँच वक़्त नज़र आता है नमाजों में
मगर सुना है कि शब को जुआ चलाता है,

ये लोग पांव नहीं जेहन से अपाहिज हैं
उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है,

हम अपने बूढे चिरागों पे खूब इतराए
और उसको भूल गए जो हवा चलाता है..!!



अंदर का ज़हर चूम लिया, धूल के आ गए
कितने शरीफ लोग थे सब खुल के आ गए,

सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवकूफ
सारे सिपाही माँ के थे घुल के आ गए,

मस्जिद में दूर दूर कोई दुसरा न था
हम आज अपने आप से मिल जुल के आ गये,

नींदो से जंग होती रहेगी तमाम उम्र
आँखों में बंद ख्वाब अगर खुल के आ गए,

सूरज ने अपनी शक्ल भी देखि थी पहली बार
आईने को मजे भी मुक़ाबिल के आ गए,

अनजाने साये फिरने लगे हैं इधर उधर
मौसम हमरे शहर में काबुल के आ गये..!!





सफ़र की हद है वहां तक की कुछ निशान रहे
चले चलो की जहाँ तक ये आसमान  रहे,

ये क्या उठाये कदम और आ गयी मंजिल
मज़ा तो तब है के पैरों में कुछ थकान रहे,

वो शख्स मुझ को कोई जालसाज़ लगता हैं
तुम उसको दोस्त समझते हो फिर भी ध्यान रहे,

मुझे ज़मीं की गहराइयों ने दबा लिया
मैं चाहता था मेरे सर पे आसमान रहे

अब अपने बिच मरासिम नहीं अदावत है
मगर ये बात हमारे ही दरमियाँ रहे,

सितारों की फसलें उगा ना सका कोई
मेरी ज़मीं पे कितने ही आसमान रहे,

वो एक सवाल है फिर उसका सामना होगा
दुआ करो की सलामत मेरी ज़बान रहे…!!


बेस्ट ग़ज़ल कलेक्शन डॉ राहत इन्दोरी

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