डॉ राहत इन्दोरी बेस्ट ग़ज़ल :-
कहीं अकेले में मिल कर झिंझोड़ दूँगा उसे,
जहाँ जहाँ से वो टूटा है जोड़ दूँगा उसे,
मुझे वो छोड़ गया ये कमाल है उस का,
इरादा मैं ने किया था कि छोड़ दूँगा उसे,
बदन चुरा के वो चलता है मुझ से शीशा-बदन,
उसे ये डर है कि मैं तोड़ फोड़ दूँगा उसे,
पसीने बाँटता फिरता है हर तरफ़ सूरज,
कभी जो हाथ लगा तो निचोड़ दूँगा उसे,
मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को,
समझ रही थी कि ऐसे ही छोड़ दूँगा उसे,
लोग हर मोड़ पे रुक रुक क्र सम्भलते क्यों है,
इतना डरते है तो फिर घर निकलते क्यों है
में ना जुगनू हूँ ना दिया हूँ ना कोई तारा हूँ ,
रोशनी वाले मेरे नाम जलाते क्यों है ,
नींद से मेरा ताल्लुक ही नहीं वर्षों से
ख्वाब आके मेरी छत पे टहलते क्यों है
मोड़ होता है जवानी का सम्भलने के लिये ,
लोग यही आके फिसलते क्यों है
अंदर का ज़हर चूम लिया, धूल के आ गए
कितने शरीफ लोग थे सब खुल के आ गए,सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवकूफ
सारे सिपाही माँ के थे घुल के आ गए,मस्जिद में दूर दूर कोई दुसरा न था
हम आज अपने आप से मिल जुल के आ गये,नींदो से जंग होती रहेगी तमाम उम्र
आँखों में बंद ख्वाब अगर खुल के आ गए,सूरज ने अपनी शक्ल भी देखि थी पहली बार
आईने को मजे भी मुक़ाबिल के आ गए,अनजाने साये फिरने लगे हैं इधर उधर
मौसम हमरे शहर में काबुल के आ गये..!!
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